Wednesday, 2 May 2018

संत और त्याग .

आज जो लोग विज्ञान की शक्ति के सामने नतमस्तक हैं , जिन्हे अपने कुतर्कों  के सामने सबकुछ बौना नज़र आता है। वो लोग जो पौराणिक कथाओं को मज़ाक से ज्यादा नहीं लेते, जिन्हे सत्य -असत्य, पाप -पुण्य किसी ढोंग से ज्यादा नहीं लगता। जिन्हे ना तो अपने बारे में ठीक से पता है और न ही अपने धर्म के बारे में , ये  लोग हर उस बात का मज़ाक उड़ाते हैं ,जो वो नहीं कर सकते। उन्हें हर वो चीज़ असंभव नज़र आती है जो वो नहीं कर सकते।

उन्हें ना तो 'प्रहलाद जानी' के बारे में पता है, जो पिछले 70   सालों से बिना अन्न- जल ग्रहण किये हठयोग के बल पर जी रहे हैं,और ना  ही रायगढ़ वाले बाबा सत्यनारायण की जो पिछले बीस सालों से बिना अन्न-जल ग्रहण किये जी रहे हैं।  खैर इन बाबाओ का नाम तो हमने  बस  इसलिए लिख दिया, क्योंकि अबतक आप लोगों के मन में ये भावना पूरी तरह बैठ चुकी है कि बाबा मतलब अधर्मी ही होता है , उन्हें थोड़ा हल्का किया जाय।  मेरे कहने का मतलब ये भी नहीं है की सच्चाई  जान लेने पर आप इनके अंधे भक्त हो जाओ, और फिर इनकी फोटो घर में लटकाकर पूजा करने लग जाओ।  ये एक मिशाल हैं, जो हमें ये बताते है , कि कुछ भी असंभव   नहीं है। हम भी हर वो काम कर सकते हैं, जो हमें लगता है की सही है और होना चाहिए , या करना चाहिए। अब जब धर्म और बाबा की बात आ गयी तो आप सोचोगे ,'ये भी बकवास पे उतर आया' मंदिर -मस्जिद की बात करेगा।  मैं आपको ये बात स्पष्ट रूप से बता दूँ, कि मुझे हर धर्म का वो पहलु पसंद है जो कल्याणकारी है , जो शांति की बात करे, और जिसमें किसी माध्यम की ज़रूरत न हो।  हमने एक लेख के माध्यम से धर्म को समझने और समझाने की कोशिश की थी।  इस लिंक पे जाके उसे आप पढ़ सकते हैं।

https://muhana-vivekjha.blogspot.in/search/label/%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE

आगे बढ़ने से पहले ये बात स्पष्ट कर देता हूँ कि 'मैं विज्ञान में यकीन रखने वाला आदमी हूँ ,लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि  विज्ञान मुझपर हावी हो जाए, और  मेरे खुद के दृष्टिकोण को वो अपने हिसाब से कण्ट्रोल करना शुरू कर दे।  ये अधिकार न तो मैं विज्ञानं को देना चाहता हूँ, और न ही धर्म को।

हम थोड़ा विषय से विषयांतर हो गए थे , इसके लिए क्षमा चाहता हूँ।  आज के इस लेख का प्रयोजन त्याग के महत्व  को समझना  है।हमें समझना है कि, किस तरह त्याग के बल से हम अपने मरणशील जीवन को  सार्थकता  प्रदान कर सकते हैं। इसे जानेंगे हम एक छोटी सी पौराणिक कथा के माध्यम से।

हम सबों ने इन्द्र  के वज़्र  का नाम सुना है। वज़्र का मतलब होता है ,'कठोरतम ' वज़्र हो जाना मतलब सबसे ज्यादा मजबूत हो जाना। लेकिन क्या आपको ये पता है कि इस वज़्र  का निर्माण कैसे हुआ? इसे किस भगवान् ने बनाया? इसे हासिल करने के लिए इन्द्र को कितनी तपस्या करनी पड़ी ?

वज़्र के लिए इंद्र को कोई तप नहीं करना परा  था , और ना ही  किसी भगवान् ने उन्हें ये उपहार स्वरुप दिया था।  कहा जाता है कि  एक बार वृत्रासुर नामक राक्षस ने देवलोक पर हमला कर दिया।

देवताओं ने सभी अस्त्र- शस्त्र का प्रयोग किया लेकिन उस राक्षस के कठोर शरीर से टकरा कर सभी अस्त्र नष्ट हो गए , अंत में इंद्र को देवलोक छोड़ कर भागना पड़ा। वो भागकर त्रिदेव के पास पहुंचे तीनों  देवों  ने कहा की अभी संसार में कोई ऐसा शस्त्र नहीं है जो वृत्रासुर का वध कर सके।

ये बात सुनकर इंद्र के होश उड़ गए वो त्रिदेव से प्रार्थना करने लगे  कहने लगे ,कोई तो मार्ग होगा जिससे देवलोक को बचाया जा सके।
देवराज की ये हालत देख कर शिव ने कहा कि  धरती पर  एक महामानव है दधिचि जिन्होंने तप और साधना से अपने हड्डियों   को काफी कठोर बना लिया है।  उनसे प्रार्थना करो कि  संसार के कल्याण हेतु अपनी हड्डियां दान कर दें।

इंद्र ने शिव के कहे अनुसार दधिचि  से संसार के कल्याणार्थ उनकी हड्डियों का दान माँगा। महिर्षि दधिचि  ने संसार की खातिर अपने प्राण त्याग दिए।

देव शिल्पी विश्वकर्मा ने इनकी हड्डियों से वज़्र नामक अस्त्र का निर्माण किया।
इसके बाद इंद्र ने वृत्रासुर को युद्ध के लिए ललकारा और वज़्र के एक ही प्रहार से उसका नाश कर दिया।
और देवलोक पर फिर से देवताओं का अधिकार हो गया।

आज  साधू भोग विलास में डुबे हुए हैं, और हम अंधभक्ति में। हम दोनों को चेतने की ज़रूरत है। सत्संग का मतलब नाचना और गाना नहीं है। सत्संगों के आयोजनो  का उद्देश्य यह होता था कि, वर्तमान समस्याओं को देखते हुए हमारे जीवन में किन बदलावों की जरुरत है जिससे हम इन समस्याओं का मुकाबला करने में सक्षम हो सकें। 
सत्संग से मेरा मतलब साधू संतों के पास जमा होना नहीं है। सत्संग वैचारिक भी हो सकता है जिसकी आज सबसे ज्यादा ज़रूरत है।

  अतः हमें भी इस आधुनिकता के दौर में थोड़ा ठहर कर  सोचना होगा कि  सबकुछ बस व्यापार नहीं है , अगर ऐसा है तो फिर  हममे और मशीन में कोई  अंतर नहीं रहेगा। 

 इन संतों के लिए तो बस इतना कि इन्हे  समझना होगा कि संत का जीवन विश्व कलयाण के लिए होता है न कि भोग के लिए। उन्हें अपने लिए नहीं अपितु संसार के लिए जीना होता है , अगर वो ऐसा करने में सक्षम नहीं है तो उन्हें ये आडम्बर उतार फेकना चाहिए।


आबादी