हमारा देश भारत आज दुनियाँ का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाने का गौरव प्राप्त कर चूका है। हमें भी गर्व होता है जब नागरिक की किताब में पढ़ते हैं कि, हम दुनियाँ के सबसे बड़े लोकतंत्र में रहते हैं। पर जब हमको ये पता चलता है कि ये गौरव हमें अपने बेहिसाब आबादी के बदौलत प्राप्त हुआ है, तो मन में बहुत सारे सवाल उठने लगते हैं। ये सवाल तब और गहराने लगते है जब हम अपने देश को-
मानव विकास सूचकांक में 131 वें स्थान पर देखते हैं।
विश्व भुखमरी सूचकांक में 100 वें स्थान पर देखते हैं।
विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में 136 वें स्थान पर देखते हैं।
विश्व शांति सूचकांक में 137 वें स्थान पर देखते हैं।
विश्व खुशहाली सूचकांक में 122 वें स्थान पर देखते हैं।
और बहुत सारे सूचकांक हैं, जिनमे जब हम अपने राष्ट्र को ढूँढना शुरू करते हैं तो कई अफ्रीकी देशों से भी निचे पाते हैं। बात सिर्फ सूचकांक की होती तो हम झेल भी जाते पर जब सबकुछ आँखों के सामने हो रहा हो तो मन कतई खुद से छल करने की हिम्मत नहीं जूटा पाता है।
बात आबादी की चली थी तो इस् बात पर प्रकाश डालना ज़रूरी है कि आबादी की बदौलत मिले सम्मान पे हमारा आत्मसम्मान क्यों डोल गया। हम तो वो लोग हैं जो सिर्फ डीएनए मैच कर जाने पर सम्मानित महसूस करने लगते हैं। चाहे सम्मान पाने वाला सौ साल पहले ही हमारी नागरिकता क्यों न छोड़ गया हो।
विषय से विषयांतर न होते हुए मुख्य मुद्दे पे आता हूँ। तो हम बात कर रहे थे आबादी पर, उस आबादी पर जो उस घोड़े की तरह हो चुकी है जो रुकना भूल चूका है। रुकना तो दूर की बात है जो अपनी गति के साथ भी कोई समझौता नहीं करना चाहता है। कुछ लोग इसे वरदान के रूप में भी देख रहे हैं। ये वही लोग हैं जिन्हे इतिहास में भूगोल और भूगोल में विज्ञान ठूसने की बीमारी हो चुकी है। ये बीमारी रातों रात नहीं पनपी है ये विचार उस सरे हुए घास की तरह है जिसे हरा चश्मा पहना कर एकदम ताज़ा दिखने की कोशिश की जा रही है। चूँकि हम एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में रहते हैं जहाँ हर कोई अपना मत रखने के लिए स्वतंत्र है। मै भी बस एक नागरिक होने के नाते अपनी चिंता या यूँ कह लीजिये कि मन में चल रहे मंथन को आपके सामने रखने की कोशिश कर रहा हूँ।
आगे बढ़ने से पहले थोड़ा हम आंकड़ों पर नज़र डाल लेते हैं. आंकड़े जानना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि हम चीन और अमेरिका को पीछे छोड़ देने की बात बचपन से सुनते आ रहे हैं। मुझे इस बात पे कोई शक नहीं है कि हम किसी भी देश को पीछे छोर सकते हैं हमें शक उन नीतियों पर है जिनकी बदौलत हम ऐसा करने की सोच रहे हैं।
भारत दुनियाँ के सम्पूर्ण क्षेत्रफल का लगभग 2 .40% भूभाग पे फैला हुआ है,जहाँ दुनिया की कुल आबादी का लगभग 17% आबादी निवास करती है।
आंकड़ा ये भी कहता है कि 2024 तक हम चीन को पीछे छोड़ते हुए विश्व की सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन जाएंगे।
अब एक नज़र चीन के आंकड़ों पर देना भी ज़रूरी है क्योंकि हमारा मुकाबला उसी से है।
चीन दुनियाँ के सम्पूर्ण क्षेत्रफल का लगभग 6.40% भूभाग पर फैला हुआ है जहाँ लगभग दुनियाँ की 20% आबादी निवास करती है।
इन दो आंकड़ों को देख कर आप को भौगोलिक परिस्थितियों का थोड़ा बहुत अंदाज़ हुआ होगा. असली मुद्दा ये नहीं है कि हम ऊपर हैं कि निचे हैं या आगे हैं कि पीछे हैं। असली मुद्दा है नीतियों का , जो मैं पहले ही कह चूका हूँ कि मुझे अगर किसी बात ने इस बात पर सोचने को मज़बूर किया है तो वो है हमारी लुंज- पुंज नीतियां जो चुनाव रूपी मोहपास के आगे कभी ठीक से जन्म ही नहीं ले पायी , चलना और दौड़ना तो दूर की कौड़ी समझो। अब थोड़ा इतिहास की और जाना होगा क्योंकि इसके बिना इस मकरजाल को समझना मुश्किल है।
एक समय था जब चीन को "एशिया का मरीज़" कहा जाता था. इसके मुख्य कारणों में से एक वहां की बेलगाम बढ़ती जनसख्या थी। एक दौर था जब चीन भूखमरी ,अकाली,गरीबी जैसे अभिशापों से बुरी तरह ग्रसित था।
जब उन्होंने इस समस्या का हल ढूँढना शुरू किया तो उन्होंने जो सबसे पहला कदम उठाया वो था "एक बच्चा नीति ". सन 1979 में इसे शुरू किया गया जो 1 जनवरी 2016 तक चला। उसके बाद नया कानून पारित हुआ जिसे "दो बाल नीति" के नाम से जाना जाता है। चूँकि एक बच्चा निति सिर्फ हान चीनी पर लागू हुआ था जो कुल आबादी का 36% थे बांकि लोग दूसरा बच्चा कर सकते थे। शर्त ये थी कि पहली संतान लड़की हो तभी दूसरे की इजाजत मिल सकती है। ये इतना सरल नहीं था। उस समय इसका घोर विरोध हुआ पर इस निति के साथ ही चीन के आर्थिक सुधर का दौर शुरू हुआ और आज वो जिस मुकाम पे है इसे कोई नकार नहीं सकता।
अब नज़र डालते हैं भारत द्वारा अपनाये गए उपायों पर।
प्रथम चरण
भारत में जनसँख्या नियंत्रण के लिए प्रथम प्रयास रघुनाथ थोड़े कर्वे द्वारा एक मराठी अखबार के माध्यम से शुरू किया गया, जिसमे उन्होंने गर्भनिरोधक के इस्तेमाल के जरिये समाज की भलाई के मुद्दे पर प्रकाश डालने का प्रयास किया लेकिन महात्मा गाँधी के घोर विरोध के चलते उनके इस प्रयास को सफलता नहीं मिल सकी। गाँधी आत्मनियंत्रण की बात करते थे। ये और बात है कि देश की अधिकांश आबादी को आत्मनियंत्रण जैसे शब्दों के अर्थ समझने में भी दिक्कत हो जाए। .
द्वितीय चरण
कहने को तो भारत परिवार नियोजन कार्यक्रम शुरू करने वाला दुनियां का प्रथम देश है। 1952 में इसे लागू किया गया था जो खानापूर्ति से ज्यादा साबित ना हो सकी। भारत में सर्वप्रथम जनसख्या नियंत्रण नीति बनाने का सुझाव 1960 में एक विशेषज्ञ समिति द्वारा दिया गया लेकिन इसे ज़मीं पर आते आते 16 साल लग गए और 1976 में देश की पहली जनसख्या निति की घोषणा की गयी। 70 के दशक में आपातकाल के दौरान नसबंदी अभियान चलाया गया जो ना तो उचित था ना ही कानूनी। आशान्वित सफलता इन उपायों को भी नहीं मिली.
तृतीये चरण
जनसँख्या नियंत्रण की तीसरी योजना 2000 में लागू की गयी जिसके अंतर्गत कई योजनाओं की शुरुआत हुई।
शिशु मृत्यु दर,कुपोषण ,,टीकाकरण आदि की कई योजनाए लागू हुई जिसका असर भी हुआ। आज भारत पोलियोमुक्त देशों की कतार में खरा है। मगर मूल समस्या पर इसका अबतक कोई ख़ास असर नहीं हुआ। इस योजना के अंतर्गत 2045 तक जनसँख्या नियंत्रित करने का प्रस्ताव रखा गया है। कुछ राज्यों ने "दो बच्चा नीति" की शुरुआत भी की थी मगर राजनीतिक कारणों से उन्हें रोकना पड़ा। सबसे हाल की घटना असम की है जहाँ इस योजना को रोकना परा था।
निष्कर्षतः हम यही कह सकते हैं कि इसे भी लोकतान्त्रिक गुण दोष की श्रेणी में रख दिया गया है। ऐसा नहीं है की जागरूकता नहीं आयी है, लेकिन वो आवश्यकता से बहुत पीछे है। जरुरत है इसको राजनीति से ऊपर रखकर सोचने की जो नेता और जनता दोनों पर सामान रूप से लागू होती है। अंत में बस इतना ही जबतक संसद इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं लेती,, आप- हम गाँधी के आत्मनियंत्रण पर विचार करें। ये बात और है कि गाँधी, जिसे कई लोग अवतार भी मानते हैं इस आत्मनियंत्रण के प्रयोग में कई बार असफल हो चुके हैं। .....
अगला अंक बेरोजगारी होगा। ........ अच्छा लगा हो तो लिखे वाले बटन को दबा दीजियेगा।
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