कुछ मुद्दे ऐसे होते हैं, जिनसे आपको एक लगाव सा हो जाता है। ये लगाव इसलिए नहीं होता कि इससे आपका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ हो। पर बात जब सार्वजनिक मुद्दों की हो, और आप अपने आपको एक सामाजिक प्राणी कहने में गर्व महसूस करते हैं, तो खुद को रोकना किसी बहती नदी को रोकने के समान लगने लगता है।
मेरा पिछला पोस्ट था आबादी पर, उस आबादी पर जिससे रूबरू तो आप रोज होते हैं , मगर उसपे सोचने का समय नहीं निकाल पाते। इस समय ना निकाल पाने के बहुत से कारण हो सकते हैं। उन बहुत से कारणों में से कुछ कारणों को मैं आपके समक्ष रखने रखने की कोशिश करूँगा।
आपकी ज़रूरतें - ये जो ज़रूरत नामक शब्द है ना , इसका अर्थ बड़ा ही व्यापक है। ये आपकी व्यस्तता को तीव्र से तीव्रतम तक पहुंचा देती है। आपकी हालत उस घोड़े की तरह हो जाती हैं, जो दौड़ते वक़्त ना तो दाएं देखता है और ना ही बाएं बस सरपट दौड़ता है, और ये दौर तब तक चलती है, जबतक उसके सफर का अंत ना हो जाए।
आपका स्वप्न -ये आपको बैचैन रखता है। आप यथार्थ से दूर होकर सोचना शुरू कर देते हैं। वैसे स्वप्न देखना अच्छी बात है। लेकिन ये भी सत्य है कि, कोई भी वस्तु या विचार जब हमारी इन्द्रिओं एवं ज्ञानेद्रियों को वर्तमान देखने में बाधक प्रतीत होने लगे तो हमें सावधान जाना चाहिए।
आपकी इच्छाएँ -'इच्छाएं' एक ऐसा शब्द जिसकी विशालता को संभालना उतना ही मुश्किल है,जितना कि हमारे देश में गंगा को साफ कर पाना। अब आप कहेंगे, ये गंगा कहाँ से आ गयी! और भी बहुत सारे मुद्द्दे हैं , फिर गंगा ही क्यों!
मेरा मकसद किसी की भावनाओं को आहत करने का ना कभी रहा है , ना अभी है। फिर भी अगर किसी की भावना आहात हो जाए तो हमें बुरा -भला कहने से पहले अपनी व्यस्तता को अल्प विराम देकर शांत मन से एक बार सही - गलत ज़रूर सोच लीजियेगा।
हाँ तो बात हो रही थी गंगा की, उस गंगा की जिसे प्रदूषण मुक्त करने का संकल्प तो पिछले 25 सालों से लिया जा रहा है , मगर दिन- ब- दिन वो और प्रदूषित होती जा रही है। ठीक इसी प्रकार इच्छाओं को नियंत्रित करने के अनेकों प्रयास सदियों से किये जा रहे हैं, लेकिन वो हर अगले दिन और भी प्रचंड होती जा रही हैं। और ये जो वर्तमान की बड़ी -बड़ी समस्याएं देखने को मिल रही हैं , वो हमारी असंतुलित इच्छाओं का ही परिणाम है।
ख़ैर इसको यहीं विराम देते हुए हम आते हैं असली मुद्दे पर। हम बात कर रहे थे आबादी पर, उस आबादी पर जो हमारे हर अगले कदम के सामने पत्थर की तरह आकर हमारी गति को मंद है। हम समस्याओं के लिए राजनेताओं या भगवान् को दोषी मान कर उससे निजात पा हैं।
अब बिंदुवार उन समस्याओं पर प्रकाश डालूंगा, जिसके लिए सीधे -सीधे हमारी हाहाकारी जनसख्या जिम्मेदार है।
स्वास्थ - जीव है तो जीवन है, और जीवन है तो स्वास्थ है। हमारे यहाँ कहा जाता है कि "स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ विचारों का निर्माण होता है"। यह परम सत्य है , क्योंकि जब तक आपका शरीर स्वस्थ नहीं रहेगा।,आप अपने मन को किसी दूसरे विषय पर पूरी तरह केंद्रित नहीं कर पाएंगे। अब थोड़ा नज़र डालते हैं अपने देश की स्वास्थ व्यवस्था पर। वैसे हमारी चाल इस क्षेत्र में मंद ही रही है। आज भी हमारा स्वस्थ बजट जीडीपी का 1. 15 % ही है, जिसे 2025 तक दुगना करने का लक्ष्य रखा गया है। जब हम अपनी तुलना वैश्विक स्तर पर करते हैं तो देखते हैं, कि विश्व स्वास्थ सूचकांक के 195 देशों की सूची में हमारा स्थान 154 वां है। हम अपने पड़ोसी देश बांग्लादेश ,भूटान और श्रीलंका से भी नीचे हैं। हम आतंक पीड़ित सोमालिया और अफ़ग़ानिस्तान से भी नीचे हैं। हमारे यहाँ 27% बीमार सिर्फ इसलिए मर जाते हैं, क्योंकि उन्हें उचित समय पर उचित इलाज नहीं मिल पाता है। हमारे अस्पतालों में प्राथमिक सुविधाओं का घोर अभाव है, ये हमें तब पता चलता है, जब ऑक्सीजन के अभाव में 60 बच्चों की मृत्यु हो जाती है।एक रिपोर्ट के अनुसार हमारे यहाँ 60% बच्चे जो तीन साल से कम के हैं, कुपोषित हैं। 7% बच्चे पांच साल तक की उम्र पहुँचते - पहुँचते मर जाते हैं। बात जब महिलाओं के स्वस्थ की आती है तो हम देखते हैं की 75% गर्भवती औरतें आयरन की कमी से होनेवाली बीमारी एनीमिया से पीड़ित हैं। पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में कुपोषण की समस्या अधिक है, और ये तब और अधिक हो जाती है जब कम उम्र में उनकी शादी कर दी जाती है ,और उन्हें गर्भधारण करना पड़ता है।
ऐसा नहीं है कि, हमारे देश में स्वास्थ सुधर के लिए कदम नहीं उठाये जा रहे हैं। सरकार ने अनेकों योजनाएं चला रखी है। 'मिशन इंद्रधनुष' जैसी प्रभावकारी योजना जो अगले जेनेरशन को सबलता प्रदान करेगी।सरकार "टीबी मिशन -2020" चला रही है, जिसका लक्ष्य 2020 तक देश को टीबी मुक्त करने का रखा गया है। आज हमारे पास आज़दी के समय से सात गुना अधिक डॉक्टर हैं और तीन गुना अधिक बेड हैं। ये सब होने के बाद भी यथार्थ भयावह है। लाखों लोग बिना इलाज के मर रहे हैं। हर दूसरा बच्चा कुपोषित है। गावों में अभी तक इलाज की स्थायी सुविधा नहीं है। इन सब के पीछे जो सबसे बड़ा कारण है, वो है हमारी अनियंत्रित जनसँख्या। आज़ादी के समय हम 30 करोड़ थे, आज 130 करोड़ हैं। आप अनुमान लगा सकते हैं कि, हमारे स्वास्थ सुधारों का क्या अनुपात है। समय निकाल कर सोचियेगा कभी , क्यों हम इतने प्रयासों के बाद भी असफल हैं? क्यों आज भी लोग बिना इलाज के मर रहे हैं? क्यों देश का भविष्य बीमार पैदा हो रहा है? क्यों हम आज भी आधारभूत सुविधाओं में अफ्रीकी देशों से भी पीछे हैं? अपनी व्यस्त दिनचर्या से समय निकाल कर एक बार सोचियेगा ज़रूर।
शिक्षा - शिक्षा को तीसरी आँख का दर्जा दिया गया है.। वो तीसरी आँख जो हमें जीना सिखाता है। शिक्षा के बल पर ही इतने बड़े -बड़े परिवर्तन संभव हुए हैं। आज दुनियाँ जब शिक्षा के क्षेत्र में नित नये -नये आयाम गढ़ रही है। अमेरिका,जापान,नार्वे ,स्विट्ज़रलैंड ,चीन आदि देश अपनी शिक्षा व्यवस्था के साथ नये -नये प्रयोग कर रहे हैं , वहीँ हम अभी भी प्राथमिक शिक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अभी भी हमारी साक्षरता दर 74% है। हमारे यहाँ दुनियाँ की सबसे बड़ी अशिक्षित लोगों की फ़ौज खड़ी है।दुनियाँ की कुल अशिक्षित जनसँख्या का 33% हमारे यहाँ निवास करती है। स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी है। सिर्फ प्राथमिक विद्यालयों में पाँच लाख से अधिक शिक्षकों के पद खली है। उच्च शैक्षिक संस्थानों की भी हालत इससे अलग नहीं है। युनिवर्सिटीज़ और कॉलेजों में संकायों (फैकल्टी )की भारी कमी है। आइआइटी एवं आईआईएम जैसे शैक्षिक संस्थान भी शिक्षकों की कमी से झूझ रहे है। हमारे यहाँ कुल शिक्षित जनसख्याँ का मात्र 8% स्नातक है।
ऐसा नहीं है कि आज़ादी के बाद हमारे यहाँ शिक्षा के क्षेत्र में सुधार नहीं हुए। आज़ादी के तुरंत बाद 1948 में 'राधाकृष्णन समिति' का गठन किया गया। 1952 में 'मुदलिआर समिति' का गठन किया गया। 1964 में 'कोठरी कमीशन ' का गठन हुआ। 1992 में 'जनार्दन रेड्डी कमिटी' का गठन हुआ। इन समितियों की अनुशंसा पर ,लाखों विद्यालय ,हज़ारों कॉलेज, सैकड़ों विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई।नये-नये तकनीकी और चिकित्सा संस्थानों की स्थापना हुई। इन सुधारों के दम पर हमारी साक्षरता दर 12%(आज़ादी के समय) से 74% तक पहुंची है।
अब सवाल ये उठता है कि, इतने सुधारों के बाद भी हम इतने पीछे क्यों रह गए? क्या कारण है, कि अभी भी हम पूर्णतः साक्षर नहीं हो पाए हैं? क्यों हमारे ही यहाँ अभी तक सबसे ज्यादा अशिक्षा है?
जब इन सवालों के जवाब ढूँढना शुरू करता हूँ तो इन सारे सवालों के जवाब एक बिंदु पर आके ठहर जाते हैं ,वो बिंदु है हमारी अनियंत्रित जनसख्याँ। वो जनसख्या जिसकी गति सुधारों से कई गुना अधिक रही है। जो हमेशा से सुधारों को मात देती आयी है। और तब तक देती रहेगी,
जबतक हम इसे समस्या के रूप में नहीं देखेंगे।
जबतक हम बच्चों को भगवान् की इच्छा समझते रहेंगे।
जबतक राजनीतिक दल हमें सिर्फ वोट बैंक समझती रहेगी।
गरीबी -गरीबी को अभिशाप माना गया है। यह एक ऐसी बीमारी है, जो हमें रोज मारती है। ये एकमात्र ऐसी बीमारी है जो पुरे परिवार को एक साथ होती है।
हमारा देश भारत जिसे कभी सोने की चिड़ियाँ कहा जाता था , वहाँ आज दुनियाँ की सबसे ज्यादा गरीबों की आबादी निवास करती है। गरीबों की व्याख्या करने से पहले यह जान लेना ज़रूरी है कि हमारे यहाँ गरीब किसे माना जाता है। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से , जो व्यक्ति शहर में रहकर 32 रूपया से कम कमाता है, और गाँव में 26 रूपया से कम कमाता है, उसे गरीब माना जाएगा। और हमारे यहाँ ऐसे लोगों की संख्या लगभग 25 करोड़ है। आप सोच सकते हैं कि इन लोगों के जीवन का क्या स्तर होगा। ये वो लोग हैं, जिनके लिए रिजर्वेशन बोगी में यात्रा करना,कॉलेज में शिक्षा प्राप्त करना , होटल में खाना , आदि जीते जी स्वर्ग जाने के बराबर है। और ऐसे लोगों की सँख्या हमारे यहाँ 25 करोड़ के आसपास है! और एक बात हमारे यहाँ के गरीबी मापने का मानक अंतर्राष्ट्रीय मानक से काफी नीचे है। कुछ तथ्य जो जानना ज़रूरी है -
3000 से ज्यादा बच्चे हमारे यहाँ हर दिन खाने की कमी से होने वाली बिमारियों से मर जाते हैं।
लगभग 25 लाख लोग सालाना खाने की कमी से मर जाते हैं।
लगभग 20 करोड़ लोग रात को आधे पेट खाकर या भूखे सोते हैं।
दुनियां की कुल गरीबों का 20% जनसख्याँ हमारे यहाँ निवास करती है।
दुनियां के कुल गरीब बच्चों का लगभग 31% जनसख्याँ हमारे यहाँ निवास करती है।
जब हम वैश्विक गरीबी रेखा के मानक में खुद को रखते हैं तो 67% आबादी गरीबी रेखा से नीचे गुजर करती नज़र आती है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में हम श्रीलंका, बांग्लादेश,म्यानमार ,नेपाल आदि से भी पीछे हैं। हमारा स्थान 100 वां है।
ऐसा नहीं है कि सरकार गरीबी कम करने के लिए काम नहीं कर रही है। बहुत साड़ी योजनाएं सिर्फ भुखमरी और गरीबी को समाप्त करने के लिए चलाये जा रहे हैं। अन्नपूर्णा योजना ,राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना , प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना आदि चलाये जा रहे हैं , जिससे गरीबी को नियंत्रित किया जा सके। लेकिन यह हर दिन हमारे नियंत्रण से बाहर होता जा रहा है। जब तमाम पहलुओं पर नज़र डालता हूँ,, तो जो मुख्या कारण नज़र आता है, वो हमारी बेलगाम जनसख्या ही है। जो हर प्रयास की गति को मंद कर देती है।
सोचियेगा कभी समय निकलकर कि हम अगर ऐसे ही चलते रहे तो कितनी जल्दी विनाश के कगार पर पहुंच सकते हैं। बचपन से पढ़ाया गया है कि संसाधन सिमित है, इनका उपयोग सोच समझ कर करना चाहिए। अगर हम इसी तरह भगवन की इच्छा से बढ़ते रहे तो सबकुछ ख़त्म हो जायेगा, और जब सबकुछ ख़त्म हो जाएगा तो हमारा ख़त्म होना भी तय है।
आपका स्वप्न -ये आपको बैचैन रखता है। आप यथार्थ से दूर होकर सोचना शुरू कर देते हैं। वैसे स्वप्न देखना अच्छी बात है। लेकिन ये भी सत्य है कि, कोई भी वस्तु या विचार जब हमारी इन्द्रिओं एवं ज्ञानेद्रियों को वर्तमान देखने में बाधक प्रतीत होने लगे तो हमें सावधान जाना चाहिए।
आपकी इच्छाएँ -'इच्छाएं' एक ऐसा शब्द जिसकी विशालता को संभालना उतना ही मुश्किल है,जितना कि हमारे देश में गंगा को साफ कर पाना। अब आप कहेंगे, ये गंगा कहाँ से आ गयी! और भी बहुत सारे मुद्द्दे हैं , फिर गंगा ही क्यों!
मेरा मकसद किसी की भावनाओं को आहत करने का ना कभी रहा है , ना अभी है। फिर भी अगर किसी की भावना आहात हो जाए तो हमें बुरा -भला कहने से पहले अपनी व्यस्तता को अल्प विराम देकर शांत मन से एक बार सही - गलत ज़रूर सोच लीजियेगा।
हाँ तो बात हो रही थी गंगा की, उस गंगा की जिसे प्रदूषण मुक्त करने का संकल्प तो पिछले 25 सालों से लिया जा रहा है , मगर दिन- ब- दिन वो और प्रदूषित होती जा रही है। ठीक इसी प्रकार इच्छाओं को नियंत्रित करने के अनेकों प्रयास सदियों से किये जा रहे हैं, लेकिन वो हर अगले दिन और भी प्रचंड होती जा रही हैं। और ये जो वर्तमान की बड़ी -बड़ी समस्याएं देखने को मिल रही हैं , वो हमारी असंतुलित इच्छाओं का ही परिणाम है।
ख़ैर इसको यहीं विराम देते हुए हम आते हैं असली मुद्दे पर। हम बात कर रहे थे आबादी पर, उस आबादी पर जो हमारे हर अगले कदम के सामने पत्थर की तरह आकर हमारी गति को मंद है। हम समस्याओं के लिए राजनेताओं या भगवान् को दोषी मान कर उससे निजात पा हैं।
अब बिंदुवार उन समस्याओं पर प्रकाश डालूंगा, जिसके लिए सीधे -सीधे हमारी हाहाकारी जनसख्या जिम्मेदार है।
स्वास्थ - जीव है तो जीवन है, और जीवन है तो स्वास्थ है। हमारे यहाँ कहा जाता है कि "स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ विचारों का निर्माण होता है"। यह परम सत्य है , क्योंकि जब तक आपका शरीर स्वस्थ नहीं रहेगा।,आप अपने मन को किसी दूसरे विषय पर पूरी तरह केंद्रित नहीं कर पाएंगे। अब थोड़ा नज़र डालते हैं अपने देश की स्वास्थ व्यवस्था पर। वैसे हमारी चाल इस क्षेत्र में मंद ही रही है। आज भी हमारा स्वस्थ बजट जीडीपी का 1. 15 % ही है, जिसे 2025 तक दुगना करने का लक्ष्य रखा गया है। जब हम अपनी तुलना वैश्विक स्तर पर करते हैं तो देखते हैं, कि विश्व स्वास्थ सूचकांक के 195 देशों की सूची में हमारा स्थान 154 वां है। हम अपने पड़ोसी देश बांग्लादेश ,भूटान और श्रीलंका से भी नीचे हैं। हम आतंक पीड़ित सोमालिया और अफ़ग़ानिस्तान से भी नीचे हैं। हमारे यहाँ 27% बीमार सिर्फ इसलिए मर जाते हैं, क्योंकि उन्हें उचित समय पर उचित इलाज नहीं मिल पाता है। हमारे अस्पतालों में प्राथमिक सुविधाओं का घोर अभाव है, ये हमें तब पता चलता है, जब ऑक्सीजन के अभाव में 60 बच्चों की मृत्यु हो जाती है।एक रिपोर्ट के अनुसार हमारे यहाँ 60% बच्चे जो तीन साल से कम के हैं, कुपोषित हैं। 7% बच्चे पांच साल तक की उम्र पहुँचते - पहुँचते मर जाते हैं। बात जब महिलाओं के स्वस्थ की आती है तो हम देखते हैं की 75% गर्भवती औरतें आयरन की कमी से होनेवाली बीमारी एनीमिया से पीड़ित हैं। पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में कुपोषण की समस्या अधिक है, और ये तब और अधिक हो जाती है जब कम उम्र में उनकी शादी कर दी जाती है ,और उन्हें गर्भधारण करना पड़ता है।
ऐसा नहीं है कि, हमारे देश में स्वास्थ सुधर के लिए कदम नहीं उठाये जा रहे हैं। सरकार ने अनेकों योजनाएं चला रखी है। 'मिशन इंद्रधनुष' जैसी प्रभावकारी योजना जो अगले जेनेरशन को सबलता प्रदान करेगी।सरकार "टीबी मिशन -2020" चला रही है, जिसका लक्ष्य 2020 तक देश को टीबी मुक्त करने का रखा गया है। आज हमारे पास आज़दी के समय से सात गुना अधिक डॉक्टर हैं और तीन गुना अधिक बेड हैं। ये सब होने के बाद भी यथार्थ भयावह है। लाखों लोग बिना इलाज के मर रहे हैं। हर दूसरा बच्चा कुपोषित है। गावों में अभी तक इलाज की स्थायी सुविधा नहीं है। इन सब के पीछे जो सबसे बड़ा कारण है, वो है हमारी अनियंत्रित जनसँख्या। आज़ादी के समय हम 30 करोड़ थे, आज 130 करोड़ हैं। आप अनुमान लगा सकते हैं कि, हमारे स्वास्थ सुधारों का क्या अनुपात है। समय निकाल कर सोचियेगा कभी , क्यों हम इतने प्रयासों के बाद भी असफल हैं? क्यों आज भी लोग बिना इलाज के मर रहे हैं? क्यों देश का भविष्य बीमार पैदा हो रहा है? क्यों हम आज भी आधारभूत सुविधाओं में अफ्रीकी देशों से भी पीछे हैं? अपनी व्यस्त दिनचर्या से समय निकाल कर एक बार सोचियेगा ज़रूर।
शिक्षा - शिक्षा को तीसरी आँख का दर्जा दिया गया है.। वो तीसरी आँख जो हमें जीना सिखाता है। शिक्षा के बल पर ही इतने बड़े -बड़े परिवर्तन संभव हुए हैं। आज दुनियाँ जब शिक्षा के क्षेत्र में नित नये -नये आयाम गढ़ रही है। अमेरिका,जापान,नार्वे ,स्विट्ज़रलैंड ,चीन आदि देश अपनी शिक्षा व्यवस्था के साथ नये -नये प्रयोग कर रहे हैं , वहीँ हम अभी भी प्राथमिक शिक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अभी भी हमारी साक्षरता दर 74% है। हमारे यहाँ दुनियाँ की सबसे बड़ी अशिक्षित लोगों की फ़ौज खड़ी है।दुनियाँ की कुल अशिक्षित जनसँख्या का 33% हमारे यहाँ निवास करती है। स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी है। सिर्फ प्राथमिक विद्यालयों में पाँच लाख से अधिक शिक्षकों के पद खली है। उच्च शैक्षिक संस्थानों की भी हालत इससे अलग नहीं है। युनिवर्सिटीज़ और कॉलेजों में संकायों (फैकल्टी )की भारी कमी है। आइआइटी एवं आईआईएम जैसे शैक्षिक संस्थान भी शिक्षकों की कमी से झूझ रहे है। हमारे यहाँ कुल शिक्षित जनसख्याँ का मात्र 8% स्नातक है।
ऐसा नहीं है कि आज़ादी के बाद हमारे यहाँ शिक्षा के क्षेत्र में सुधार नहीं हुए। आज़ादी के तुरंत बाद 1948 में 'राधाकृष्णन समिति' का गठन किया गया। 1952 में 'मुदलिआर समिति' का गठन किया गया। 1964 में 'कोठरी कमीशन ' का गठन हुआ। 1992 में 'जनार्दन रेड्डी कमिटी' का गठन हुआ। इन समितियों की अनुशंसा पर ,लाखों विद्यालय ,हज़ारों कॉलेज, सैकड़ों विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई।नये-नये तकनीकी और चिकित्सा संस्थानों की स्थापना हुई। इन सुधारों के दम पर हमारी साक्षरता दर 12%(आज़ादी के समय) से 74% तक पहुंची है।
अब सवाल ये उठता है कि, इतने सुधारों के बाद भी हम इतने पीछे क्यों रह गए? क्या कारण है, कि अभी भी हम पूर्णतः साक्षर नहीं हो पाए हैं? क्यों हमारे ही यहाँ अभी तक सबसे ज्यादा अशिक्षा है?
जब इन सवालों के जवाब ढूँढना शुरू करता हूँ तो इन सारे सवालों के जवाब एक बिंदु पर आके ठहर जाते हैं ,वो बिंदु है हमारी अनियंत्रित जनसख्याँ। वो जनसख्या जिसकी गति सुधारों से कई गुना अधिक रही है। जो हमेशा से सुधारों को मात देती आयी है। और तब तक देती रहेगी,
जबतक हम इसे समस्या के रूप में नहीं देखेंगे।
जबतक हम बच्चों को भगवान् की इच्छा समझते रहेंगे।
जबतक राजनीतिक दल हमें सिर्फ वोट बैंक समझती रहेगी।
गरीबी -गरीबी को अभिशाप माना गया है। यह एक ऐसी बीमारी है, जो हमें रोज मारती है। ये एकमात्र ऐसी बीमारी है जो पुरे परिवार को एक साथ होती है।
हमारा देश भारत जिसे कभी सोने की चिड़ियाँ कहा जाता था , वहाँ आज दुनियाँ की सबसे ज्यादा गरीबों की आबादी निवास करती है। गरीबों की व्याख्या करने से पहले यह जान लेना ज़रूरी है कि हमारे यहाँ गरीब किसे माना जाता है। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से , जो व्यक्ति शहर में रहकर 32 रूपया से कम कमाता है, और गाँव में 26 रूपया से कम कमाता है, उसे गरीब माना जाएगा। और हमारे यहाँ ऐसे लोगों की संख्या लगभग 25 करोड़ है। आप सोच सकते हैं कि इन लोगों के जीवन का क्या स्तर होगा। ये वो लोग हैं, जिनके लिए रिजर्वेशन बोगी में यात्रा करना,कॉलेज में शिक्षा प्राप्त करना , होटल में खाना , आदि जीते जी स्वर्ग जाने के बराबर है। और ऐसे लोगों की सँख्या हमारे यहाँ 25 करोड़ के आसपास है! और एक बात हमारे यहाँ के गरीबी मापने का मानक अंतर्राष्ट्रीय मानक से काफी नीचे है। कुछ तथ्य जो जानना ज़रूरी है -
3000 से ज्यादा बच्चे हमारे यहाँ हर दिन खाने की कमी से होने वाली बिमारियों से मर जाते हैं।
लगभग 25 लाख लोग सालाना खाने की कमी से मर जाते हैं।
लगभग 20 करोड़ लोग रात को आधे पेट खाकर या भूखे सोते हैं।
दुनियां की कुल गरीबों का 20% जनसख्याँ हमारे यहाँ निवास करती है।
दुनियां के कुल गरीब बच्चों का लगभग 31% जनसख्याँ हमारे यहाँ निवास करती है।
जब हम वैश्विक गरीबी रेखा के मानक में खुद को रखते हैं तो 67% आबादी गरीबी रेखा से नीचे गुजर करती नज़र आती है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में हम श्रीलंका, बांग्लादेश,म्यानमार ,नेपाल आदि से भी पीछे हैं। हमारा स्थान 100 वां है।
ऐसा नहीं है कि सरकार गरीबी कम करने के लिए काम नहीं कर रही है। बहुत साड़ी योजनाएं सिर्फ भुखमरी और गरीबी को समाप्त करने के लिए चलाये जा रहे हैं। अन्नपूर्णा योजना ,राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना , प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना आदि चलाये जा रहे हैं , जिससे गरीबी को नियंत्रित किया जा सके। लेकिन यह हर दिन हमारे नियंत्रण से बाहर होता जा रहा है। जब तमाम पहलुओं पर नज़र डालता हूँ,, तो जो मुख्या कारण नज़र आता है, वो हमारी बेलगाम जनसख्या ही है। जो हर प्रयास की गति को मंद कर देती है।
सोचियेगा कभी समय निकलकर कि हम अगर ऐसे ही चलते रहे तो कितनी जल्दी विनाश के कगार पर पहुंच सकते हैं। बचपन से पढ़ाया गया है कि संसाधन सिमित है, इनका उपयोग सोच समझ कर करना चाहिए। अगर हम इसी तरह भगवन की इच्छा से बढ़ते रहे तो सबकुछ ख़त्म हो जायेगा, और जब सबकुछ ख़त्म हो जाएगा तो हमारा ख़त्म होना भी तय है।