Saturday, 31 March 2018

आबादी (समस्याएं )


कुछ   मुद्दे ऐसे होते हैं, जिनसे  आपको एक लगाव सा हो जाता  है।   ये  लगाव   इसलिए  नहीं होता कि इससे आपका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ हो। पर  बात जब सार्वजनिक मुद्दों की हो, और आप अपने आपको एक सामाजिक प्राणी कहने में गर्व महसूस करते हैं, तो खुद को रोकना किसी बहती नदी को  रोकने के समान लगने लगता है। 

 मेरा पिछला  पोस्ट था आबादी पर, उस आबादी पर जिससे रूबरू तो आप रोज  होते हैं , मगर उसपे सोचने का समय  नहीं निकाल पाते। इस समय ना निकाल पाने के  बहुत  से कारण   हो सकते   हैं। उन बहुत से  कारणों में से कुछ कारणों  को मैं आपके समक्ष रखने रखने की कोशिश करूँगा।
    

आपकी ज़रूरतें - ये जो ज़रूरत नामक शब्द है ना , इसका अर्थ  बड़ा  ही व्यापक है। ये आपकी व्यस्तता को तीव्र से तीव्रतम तक पहुंचा देती है।  आपकी हालत  उस घोड़े की तरह हो जाती   हैं, जो दौड़ते  वक़्त ना तो दाएं देखता है और ना ही बाएं बस सरपट दौड़ता है, और ये दौर तब  तक चलती है, जबतक उसके  सफर का अंत ना हो जाए।
आपका  स्वप्न -ये आपको बैचैन रखता है। आप यथार्थ से दूर होकर सोचना शुरू कर देते हैं। वैसे स्वप्न  देखना अच्छी बात है। लेकिन ये  भी सत्य है कि, कोई भी वस्तु या विचार जब हमारी  इन्द्रिओं एवं ज्ञानेद्रियों को वर्तमान देखने में बाधक प्रतीत होने लगे तो हमें सावधान  जाना चाहिए।
आपकी इच्छाएँ -'इच्छाएं' एक ऐसा शब्द   जिसकी विशालता को संभालना  उतना ही मुश्किल है,जितना  कि हमारे देश में गंगा को साफ कर पाना। अब आप कहेंगे, ये गंगा कहाँ से आ गयी! और भी बहुत सारे मुद्द्दे हैं , फिर गंगा ही क्यों!
            मेरा मकसद किसी  की भावनाओं को आहत करने का ना  कभी  रहा है  , ना अभी है। फिर भी  अगर किसी की भावना आहात हो जाए तो हमें बुरा -भला कहने से पहले अपनी व्यस्तता को अल्प  विराम देकर शांत मन से  एक बार सही - गलत ज़रूर सोच लीजियेगा।
                   हाँ तो  बात हो  रही थी गंगा की, उस गंगा की जिसे प्रदूषण मुक्त  करने का संकल्प तो पिछले 25 सालों से लिया जा रहा है , मगर दिन- ब- दिन  वो और प्रदूषित होती जा रही है।  ठीक इसी प्रकार इच्छाओं को नियंत्रित करने के अनेकों  प्रयास सदियों से किये जा रहे हैं, लेकिन वो हर अगले दिन और भी प्रचंड होती जा रही हैं। और ये जो  वर्तमान की बड़ी -बड़ी समस्याएं देखने को मिल रही हैं , वो हमारी असंतुलित इच्छाओं का ही परिणाम है।
              ख़ैर  इसको यहीं विराम देते हुए हम आते हैं असली मुद्दे पर। हम बात कर रहे थे आबादी पर, उस आबादी पर जो हमारे हर अगले कदम के सामने पत्थर की तरह आकर हमारी गति को मंद  है। हम  समस्याओं के लिए राजनेताओं या  भगवान् को दोषी मान कर उससे निजात पा हैं।
                        अब  बिंदुवार  उन समस्याओं  पर प्रकाश डालूंगा, जिसके लिए सीधे -सीधे हमारी हाहाकारी जनसख्या जिम्मेदार है।


स्वास्थ - जीव है तो जीवन है, और जीवन है तो स्वास्थ है। हमारे यहाँ कहा जाता है कि  "स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ विचारों का निर्माण होता है"।  यह परम सत्य है , क्योंकि जब तक आपका शरीर स्वस्थ नहीं रहेगा।,आप अपने मन को  किसी दूसरे विषय पर पूरी तरह केंद्रित नहीं कर पाएंगे।  अब थोड़ा नज़र डालते हैं अपने देश की स्वास्थ  व्यवस्था पर। वैसे  हमारी चाल इस क्षेत्र में मंद ही रही है।  आज भी हमारा स्वस्थ बजट जीडीपी का 1. 15 % ही है, जिसे 2025 तक दुगना करने का लक्ष्य रखा गया है। जब हम अपनी तुलना वैश्विक स्तर पर करते हैं तो देखते हैं, कि  विश्व स्वास्थ  सूचकांक के 195   देशों की सूची में  हमारा स्थान 154 वां है। हम अपने पड़ोसी देश बांग्लादेश ,भूटान और श्रीलंका से भी नीचे हैं। हम आतंक पीड़ित सोमालिया और  अफ़ग़ानिस्तान से भी नीचे हैं। हमारे यहाँ 27% बीमार सिर्फ इसलिए मर जाते हैं, क्योंकि उन्हें उचित समय पर उचित इलाज  नहीं मिल पाता  है। हमारे अस्पतालों में प्राथमिक सुविधाओं का घोर अभाव है, ये हमें तब पता चलता है, जब ऑक्सीजन के अभाव में 60 बच्चों की मृत्यु हो जाती है।एक रिपोर्ट के अनुसार हमारे यहाँ  60% बच्चे जो तीन साल से कम के हैं, कुपोषित हैं। 7% बच्चे पांच साल तक की उम्र पहुँचते -  पहुँचते मर जाते हैं। बात जब महिलाओं के स्वस्थ की आती है तो हम देखते हैं की 75% गर्भवती औरतें आयरन की कमी से होनेवाली बीमारी  एनीमिया से पीड़ित हैं। पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में कुपोषण की समस्या अधिक है, और ये तब और अधिक हो जाती है जब कम उम्र में उनकी शादी कर दी जाती है ,और उन्हें गर्भधारण करना पड़ता है।



 ऐसा नहीं है कि, हमारे देश में स्वास्थ सुधर के लिए कदम नहीं उठाये जा रहे हैं। सरकार ने अनेकों योजनाएं चला रखी है। 'मिशन इंद्रधनुष' जैसी प्रभावकारी योजना जो अगले जेनेरशन को सबलता प्रदान करेगी।सरकार  "टीबी मिशन -2020" चला रही है, जिसका लक्ष्य 2020 तक देश को टीबी मुक्त करने का रखा गया है।   आज हमारे पास आज़दी के समय से सात गुना अधिक डॉक्टर हैं और तीन गुना अधिक बेड हैं। ये सब होने के बाद भी यथार्थ भयावह है। लाखों लोग बिना इलाज के मर रहे हैं। हर दूसरा बच्चा कुपोषित है। गावों में अभी तक इलाज की स्थायी सुविधा नहीं है। इन सब के पीछे जो सबसे बड़ा कारण है, वो है हमारी अनियंत्रित जनसँख्या। आज़ादी के समय हम 30 करोड़ थे, आज 130 करोड़ हैं।  आप अनुमान लगा सकते हैं कि, हमारे स्वास्थ सुधारों का क्या अनुपात है। समय निकाल कर सोचियेगा कभी , क्यों हम इतने प्रयासों के बाद भी असफल हैं? क्यों आज भी लोग बिना इलाज के मर रहे हैं? क्यों देश का भविष्य बीमार पैदा हो रहा है? क्यों हम आज भी आधारभूत सुविधाओं में अफ्रीकी देशों से भी  पीछे हैं? अपनी  व्यस्त दिनचर्या से समय निकाल कर एक बार सोचियेगा ज़रूर।



शिक्षा - शिक्षा को तीसरी आँख का दर्जा दिया गया है.। वो तीसरी आँख जो हमें जीना सिखाता है। शिक्षा के बल पर ही इतने बड़े -बड़े परिवर्तन संभव हुए हैं। आज दुनियाँ  जब शिक्षा के क्षेत्र में नित नये -नये आयाम गढ़ रही है। अमेरिका,जापान,नार्वे ,स्विट्ज़रलैंड ,चीन आदि देश अपनी शिक्षा व्यवस्था के साथ नये -नये प्रयोग कर रहे हैं , वहीँ हम अभी भी प्राथमिक शिक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अभी भी हमारी साक्षरता दर 74% है। हमारे यहाँ दुनियाँ की सबसे बड़ी  अशिक्षित लोगों की फ़ौज खड़ी  है।दुनियाँ की कुल अशिक्षित जनसँख्या का 33%  हमारे यहाँ निवास करती है।  स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी है।  सिर्फ प्राथमिक विद्यालयों में पाँच लाख से अधिक शिक्षकों के पद खली है। उच्च शैक्षिक संस्थानों की भी हालत इससे अलग  नहीं है। युनिवर्सिटीज़ और कॉलेजों में संकायों (फैकल्टी )की भारी  कमी है। आइआइटी एवं आईआईएम जैसे शैक्षिक संस्थान  भी शिक्षकों की कमी से झूझ रहे  है। हमारे यहाँ कुल शिक्षित जनसख्याँ  का मात्र 8% स्नातक है।


ऐसा नहीं है कि  आज़ादी के बाद हमारे यहाँ शिक्षा के क्षेत्र में सुधार नहीं हुए। आज़ादी के तुरंत बाद 1948  में 'राधाकृष्णन समिति' का गठन किया गया। 1952  में 'मुदलिआर समिति' का गठन किया गया। 1964 में 'कोठरी कमीशन ' का गठन हुआ।  1992 में 'जनार्दन रेड्डी कमिटी' का गठन हुआ। इन समितियों की अनुशंसा पर ,लाखों विद्यालय ,हज़ारों कॉलेज, सैकड़ों विश्वविद्यालयों  की स्थापना हुई।नये-नये तकनीकी और चिकित्सा संस्थानों की स्थापना हुई।   इन सुधारों के दम  पर  हमारी साक्षरता दर 12%(आज़ादी के समय) से 74% तक पहुंची है।

अब सवाल ये उठता है कि, इतने सुधारों के बाद भी हम इतने पीछे क्यों रह  गए? क्या कारण है, कि अभी भी हम पूर्णतः साक्षर नहीं हो पाए हैं? क्यों हमारे ही यहाँ अभी तक सबसे ज्यादा अशिक्षा है?
जब इन सवालों के जवाब ढूँढना शुरू करता हूँ तो इन सारे सवालों के जवाब एक बिंदु पर आके ठहर जाते हैं ,वो बिंदु  है हमारी अनियंत्रित जनसख्याँ। वो जनसख्या जिसकी गति सुधारों से कई गुना अधिक रही है।  जो हमेशा से सुधारों को मात देती आयी है। और तब तक देती रहेगी,


 जबतक हम इसे समस्या के रूप में नहीं देखेंगे। 
जबतक हम बच्चों को भगवान् की इच्छा समझते रहेंगे।  
जबतक राजनीतिक  दल हमें सिर्फ वोट बैंक समझती रहेगी।

गरीबी -गरीबी को अभिशाप माना गया है। यह एक ऐसी बीमारी है, जो हमें रोज मारती है। ये एकमात्र ऐसी बीमारी है जो पुरे परिवार को एक साथ  होती है। 

हमारा देश भारत जिसे कभी सोने की चिड़ियाँ कहा जाता  था , वहाँ  आज दुनियाँ की सबसे ज्यादा गरीबों की आबादी निवास करती है। गरीबों की व्याख्या करने से पहले यह जान लेना ज़रूरी है कि हमारे यहाँ गरीब किसे माना जाता है। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से , जो व्यक्ति शहर में रहकर 32 रूपया से कम कमाता है, और गाँव में 26 रूपया से कम कमाता है, उसे गरीब माना जाएगा।  और हमारे यहाँ ऐसे लोगों की संख्या लगभग 25 करोड़ है। आप सोच सकते हैं कि इन लोगों के जीवन का क्या स्तर होगा।  ये वो लोग हैं, जिनके लिए रिजर्वेशन बोगी में यात्रा करना,कॉलेज में शिक्षा प्राप्त करना , होटल में खाना , आदि जीते जी स्वर्ग जाने के बराबर है।  और ऐसे लोगों की सँख्या हमारे यहाँ 25 करोड़ के आसपास है! और एक बात हमारे यहाँ के गरीबी मापने का मानक  अंतर्राष्ट्रीय मानक से काफी नीचे है। कुछ तथ्य जो जानना  ज़रूरी है -


3000 से ज्यादा बच्चे हमारे यहाँ हर दिन खाने की कमी से होने वाली बिमारियों से मर जाते हैं। 

लगभग 25 लाख लोग सालाना  खाने की कमी से मर जाते हैं। 
लगभग 20 करोड़ लोग रात को आधे पेट खाकर या भूखे सोते हैं। 
दुनियां की कुल गरीबों का 20% जनसख्याँ  हमारे यहाँ निवास करती है। 
दुनियां के कुल गरीब बच्चों का लगभग 31% जनसख्याँ हमारे यहाँ निवास करती है। 

जब हम वैश्विक गरीबी रेखा के मानक में खुद को रखते हैं तो 67% आबादी गरीबी रेखा से नीचे गुजर करती नज़र आती है।   ग्लोबल हंगर इंडेक्स  में हम श्रीलंका, बांग्लादेश,म्यानमार ,नेपाल आदि से भी पीछे हैं। हमारा स्थान 100 वां है। 


ऐसा नहीं है कि सरकार गरीबी कम करने के लिए काम नहीं कर रही है। बहुत साड़ी योजनाएं सिर्फ भुखमरी और  गरीबी को समाप्त करने के लिए चलाये जा रहे हैं।  अन्नपूर्णा योजना ,राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना , प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना आदि चलाये जा रहे हैं , जिससे गरीबी को नियंत्रित किया जा सके।  लेकिन यह हर दिन  हमारे नियंत्रण से बाहर  होता जा रहा है।  जब तमाम पहलुओं पर नज़र डालता हूँ,, तो जो मुख्या कारण नज़र आता है, वो हमारी बेलगाम जनसख्या ही है।  जो हर प्रयास की गति को मंद कर देती है। 


सोचियेगा कभी समय निकलकर कि हम अगर ऐसे ही चलते रहे तो कितनी जल्दी विनाश के कगार पर पहुंच सकते हैं। बचपन से पढ़ाया गया है कि संसाधन सिमित है, इनका उपयोग सोच समझ कर करना चाहिए। अगर हम इसी तरह भगवन की इच्छा से बढ़ते रहे तो सबकुछ ख़त्म हो जायेगा, और जब सबकुछ ख़त्म हो जाएगा तो हमारा ख़त्म होना भी तय है। 


Friday, 2 March 2018

आबादी






हमारा देश भारत आज दुनियाँ  का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाने का गौरव प्राप्त कर चूका है।  हमें भी गर्व होता है जब नागरिक की किताब में पढ़ते हैं कि, हम दुनियाँ के सबसे बड़े  लोकतंत्र में रहते हैं। पर  जब हमको ये पता चलता है कि ये गौरव हमें अपने बेहिसाब आबादी  के बदौलत प्राप्त हुआ है, तो मन में बहुत सारे सवाल उठने लगते हैं। ये सवाल तब  और गहराने लगते  है जब हम अपने देश को-

 मानव विकास सूचकांक में 131 वें  स्थान  पर देखते हैं। 
विश्व भुखमरी सूचकांक में 100 वें स्थान पर देखते हैं। 
विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में 136 वें  स्थान पर देखते हैं।  
विश्व शांति सूचकांक में 137 वें स्थान पर देखते हैं।  
 विश्व खुशहाली सूचकांक में 122  वें  स्थान पर देखते हैं। 








और बहुत  सारे सूचकांक हैं, जिनमे जब हम अपने राष्ट्र को ढूँढना शुरू करते हैं तो कई अफ्रीकी देशों से भी  निचे पाते हैं। बात सिर्फ सूचकांक की होती तो हम झेल भी जाते पर जब सबकुछ आँखों के सामने हो रहा हो तो मन कतई खुद से छल करने की हिम्मत नहीं जूटा  पाता  है। 

  बात आबादी की चली थी तो इस् बात पर  प्रकाश डालना ज़रूरी है कि आबादी की बदौलत मिले सम्मान पे हमारा आत्मसम्मान क्यों डोल  गया। हम तो वो लोग हैं जो सिर्फ डीएनए मैच कर जाने पर सम्मानित महसूस करने लगते हैं।  चाहे सम्मान पाने वाला सौ साल पहले ही हमारी नागरिकता क्यों न छोड़ गया हो।

  विषय से विषयांतर न होते हुए मुख्य मुद्दे पे आता हूँ।  तो हम बात कर रहे थे आबादी पर, उस आबादी पर जो उस घोड़े की तरह हो चुकी है जो रुकना भूल चूका है। रुकना तो दूर की बात है जो अपनी गति के साथ भी कोई समझौता नहीं करना चाहता है। कुछ लोग इसे वरदान के रूप में भी देख रहे हैं।  ये वही लोग हैं जिन्हे इतिहास में भूगोल और भूगोल में विज्ञान ठूसने की बीमारी हो चुकी है।  ये बीमारी रातों रात नहीं पनपी है ये विचार उस सरे हुए घास की तरह है जिसे हरा चश्मा पहना कर एकदम ताज़ा दिखने की कोशिश की जा रही है।   चूँकि हम एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में रहते हैं जहाँ हर कोई अपना मत रखने के लिए स्वतंत्र है। मै  भी बस एक नागरिक होने के नाते अपनी चिंता या यूँ कह लीजिये कि मन में चल रहे मंथन को आपके सामने रखने की कोशिश कर रहा हूँ। 

आगे बढ़ने से पहले थोड़ा हम आंकड़ों पर नज़र डाल  लेते हैं.  आंकड़े जानना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि हम चीन और अमेरिका को पीछे छोड़ देने की बात बचपन से सुनते आ रहे हैं।  मुझे इस बात पे कोई शक नहीं है कि  हम किसी भी देश को पीछे छोर सकते हैं हमें शक उन नीतियों   पर  है जिनकी बदौलत हम ऐसा करने की सोच रहे हैं। 

भारत दुनियाँ  के सम्पूर्ण क्षेत्रफल का लगभग  2 .40%  भूभाग पे फैला हुआ है,जहाँ दुनिया की कुल आबादी का लगभग  17%  आबादी निवास करती है। 
 आंकड़ा ये भी कहता है कि 2024 तक हम चीन को पीछे छोड़ते हुए विश्व की सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन जाएंगे। 
अब एक नज़र चीन के आंकड़ों पर देना भी ज़रूरी है क्योंकि हमारा मुकाबला उसी से है। 

चीन दुनियाँ के सम्पूर्ण क्षेत्रफल का लगभग 6.40% भूभाग  पर फैला हुआ है जहाँ  लगभग दुनियाँ  की 20% आबादी  निवास करती है। 


इन दो  आंकड़ों को देख कर आप को भौगोलिक परिस्थितियों का  थोड़ा  बहुत अंदाज़ हुआ होगा. असली मुद्दा ये नहीं है कि  हम ऊपर हैं कि  निचे हैं या आगे हैं कि पीछे हैं। असली मुद्दा है नीतियों का , जो मैं पहले ही कह चूका हूँ कि  मुझे अगर किसी बात  ने इस बात पर सोचने को मज़बूर किया है तो वो है हमारी लुंज- पुंज नीतियां जो चुनाव रूपी मोहपास के आगे कभी ठीक से जन्म ही नहीं ले पायी , चलना और दौड़ना  तो दूर की कौड़ी  समझो। अब थोड़ा इतिहास की और जाना होगा क्योंकि इसके बिना इस मकरजाल को समझना मुश्किल है। 

एक समय था जब चीन को "एशिया का मरीज़" कहा जाता था. इसके  मुख्य कारणों में से एक  वहां की बेलगाम बढ़ती जनसख्या थी। एक दौर था जब चीन भूखमरी ,अकाली,गरीबी जैसे अभिशापों से बुरी तरह ग्रसित था। 
जब उन्होंने इस समस्या का हल ढूँढना शुरू किया तो उन्होंने  जो सबसे पहला कदम उठाया वो था "एक बच्चा नीति ". सन 1979 में इसे शुरू किया गया जो 1 जनवरी 2016 तक चला। उसके बाद नया कानून  पारित हुआ जिसे "दो बाल नीति" के नाम से जाना जाता है। चूँकि एक बच्चा निति सिर्फ हान चीनी पर लागू हुआ था जो कुल आबादी का  36%  थे बांकि  लोग दूसरा बच्चा कर सकते थे।  शर्त ये थी कि  पहली संतान लड़की हो तभी  दूसरे की इजाजत मिल सकती है।  ये इतना सरल नहीं था। उस समय इसका घोर विरोध हुआ पर इस निति के साथ ही चीन के आर्थिक सुधर का दौर शुरू हुआ और आज वो जिस मुकाम पे है इसे कोई नकार नहीं सकता। 

अब नज़र डालते हैं भारत द्वारा अपनाये गए उपायों पर। 

प्रथम चरण 

भारत में जनसँख्या नियंत्रण के लिए प्रथम प्रयास रघुनाथ थोड़े कर्वे  द्वारा एक मराठी अखबार के माध्यम से शुरू किया गया,  जिसमे उन्होंने गर्भनिरोधक के इस्तेमाल के जरिये समाज की भलाई के मुद्दे पर प्रकाश डालने का प्रयास किया लेकिन महात्मा गाँधी के घोर विरोध के चलते उनके इस प्रयास को सफलता नहीं मिल सकी।  गाँधी आत्मनियंत्रण की बात करते थे। ये और बात है कि देश की अधिकांश आबादी को आत्मनियंत्रण जैसे शब्दों के अर्थ समझने में भी दिक्कत हो जाए।

द्वितीय चरण 

  कहने को तो भारत परिवार नियोजन कार्यक्रम शुरू करने वाला दुनियां का प्रथम देश है। 1952 में इसे लागू किया गया था जो खानापूर्ति से ज्यादा साबित ना  हो सकी। भारत में सर्वप्रथम  जनसख्या नियंत्रण नीति  बनाने का सुझाव 1960 में एक विशेषज्ञ समिति द्वारा दिया गया लेकिन इसे ज़मीं पर आते आते 16  साल लग गए और 1976 में देश की पहली जनसख्या निति की घोषणा की गयी।  70  के दशक  में आपातकाल के दौरान नसबंदी अभियान चलाया गया जो ना  तो उचित था ना ही कानूनी। आशान्वित सफलता इन उपायों को भी नहीं मिली. 

तृतीये चरण 

जनसँख्या नियंत्रण की तीसरी योजना 2000 में लागू की गयी जिसके अंतर्गत कई योजनाओं की शुरुआत हुई। 
शिशु मृत्यु दर,कुपोषण ,,टीकाकरण आदि की कई योजनाए लागू हुई जिसका असर भी हुआ।  आज भारत पोलियोमुक्त देशों की कतार में खरा है। मगर मूल समस्या पर इसका अबतक  कोई ख़ास असर नहीं हुआ।  इस योजना के अंतर्गत 2045 तक जनसँख्या नियंत्रित करने का प्रस्ताव रखा गया है। कुछ राज्यों ने "दो बच्चा नीति" की शुरुआत भी की थी मगर राजनीतिक कारणों से उन्हें रोकना पड़ा। सबसे हाल की घटना असम की है जहाँ  इस योजना को रोकना परा था। 

निष्कर्षतः हम यही कह सकते हैं कि इसे भी लोकतान्त्रिक गुण दोष की श्रेणी में रख दिया गया है।  ऐसा नहीं है की जागरूकता नहीं आयी है, लेकिन वो आवश्यकता से बहुत पीछे है।  जरुरत है इसको राजनीति से ऊपर रखकर सोचने की जो  नेता और जनता दोनों पर सामान रूप से लागू होती है।  अंत में बस इतना ही जबतक संसद इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं लेती,, आप- हम  गाँधी के आत्मनियंत्रण पर विचार करें।  ये बात और है कि गाँधी, जिसे कई लोग अवतार भी  मानते हैं इस आत्मनियंत्रण के प्रयोग में कई बार  असफल हो चुके हैं। ..... 

अगला अंक बेरोजगारी होगा। ........ अच्छा लगा हो तो लिखे वाले बटन को दबा दीजियेगा। 

आबादी