आजकल एक बहस हर जगह सुनने को मिल रही है। चाय की दुकान से लेकर बड़ी - बड़ी कंपनियों के ऑफिस तक इस मुद्दे ने जगह बना ली है। एक से बढ़कर एक मिसालें दी जाती है , इतिहास भूगोल की नयी -नयी अवधारणाएं निकल कर आ रही है। कुछ एकदम से नकार रहे है और प्रतिबन्ध की बात कर रहे है तो कुछ संविधान का हवाला दे समर्थन भी कर रहे हैं।
अबतक तो आप समझ ही गए होंगे कि मैं किस मुद्दे की बात कर रहा हूँ।
जी हाँ आप एकदम सही पकड़े हैं। मैं बात कर रहा हूँ "पद्मावत " की जिसे कुछ दिन पहले तक" पद्मावती" के नाम से जान रहे थे।
संजय लीला भंसाली की "पद्मावती" वो फ़िल्म जिसने निर्माण प्रक्रिया के आरम्भ से ही विवादों के साथ गठजोड़ कर लिया था।
फिल्म सही या विवाद, या फिर दोनों।
मैं इसमें नहीं जाना चाहता और मेरी औकात भी नहीं है इस दंगल में कूदने की , हमें तो भगवा हो या हरा सबकुछ अच्छा लगता है। बस डराता है तो सुर्ख लाल जो इन दोनों के टकराने से निकल परता है।
खैर अब थोड़ा मुद्दे की बात हो जाए।
कुछ सवाल जो हम सब के मन में उठ रहे हैं।
फिल्म सही या गलत - हमें ये पता होना चाहिए है कि इसके लिए भारत सरकार ने अलग से कानून बना रखा है (cinematograph act.1952) जिसके अंतर्गत "केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड " (C.B.F.C) आता है, जो फिल्म के सही और गलत होने का निर्णय करता है। हमें ये भी पता होना चाहिए कि हम एक लोकतान्त्रिक समाज में रह रहे हैं, जिसमे ना तो सड़क पर कानून बनते हैं और ना ही अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर किसी को मारा-पीटा जा सकता है।
अगर आप को किसी बात से दिक्कत हो रही है तो न्यायालय का दरवाज़ा खुला है आप खटखटा सकते हैं।
इतिहास का सम्मान - कुछ लोग कहते हैं कि फ़िल्में तो बस मनोरंजन का साधन है। इसे गंभीरता से नहीं लेनी चाहिए। ये वही लोग हैं जिन्हे हमें गंभीरता से नहीं लेना चाहिए।
हिन्दुस्तान में फिल्मों को लोग कितनी गंभीरता से लेते हैं, इसे बस इस बात से जाना जा सकता कि फिल्मों से प्रेरित होकर लोग यहाँ चाल-ढाल ,रंग-रूप ,स्वाभाव से लेकर आस्था तक बदल डालते हैं।
याद करिये अमिताभ का फ्रेंच कट दाढ़ी ,संतोषी माँ, ग़जनी का हेयर स्टाइल , उपकार और बॉर्डर की देशभक्ति और ना जाने कितनी फ़िल्में हैं जिसने हमारे विचारों पर अमिट छाप छोड़े हैं।
अब जब आप ऐतिहासिक मुद्दों पर फिल्म बना रहे हो तो इतिहास का सम्मान करना ही चाहिए।
आप जो दिखाओगे लोग उसे ही सच समझेंगे। अगर हर किसी की समझ आप की तरह हो जायेगी तो फिर आपका धंधा चौपट हो सकता है ये आप भी अच्छी तरह से जानते हैं।
आप के कहने से लोग फिल्मों को हलके में नहीं ले सकते। फिल्म वो भी देखेंगे जो ना आपको जानते हैं न पद्मावती या अल्लाउद्दीन खिलजी को।
उन्हें फ़िल्म देखने के बाद ही इतिहास का पता चलेगा।
विरोध और राजनीति - जब इस फिल्म का ट्रेलर रिलीज़ होता है और विरोध शुरू होता है। भाग्य या दुर्भाग्य से तब कई राज्यों में चुनाव का बिगुल बज रहा होता है। और उन्ही राज्यों में से राजस्थान से सटा एक राज्य गुजरात भी होता है। चुकी ये मुद्दा राजस्थान और राजपुताना से सम्बंधित होता है जिनकी तादात गुजरात में 5% से 7 % प्रतिशत है।
और हिन्दू सेंटीमेंट भी इनके साथ जुड़ जाता है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए सभी राजनीतिक दल इस मुद्दे पर चुप्पी साध लेते हैं जो मौन समर्थन का काम करती है। कुछ नेताओं के द्वारा अनाप -शनाप बयानबाजी शुरू हो जाती है जो इस मुद्दे पर आग में घी का काम करता है। ये वही नेता हैं जो इन मुद्दों का इंतज़ार मुंह बाए करते रहते हैं। ऐसे नहीं है कि वे मुर्ख या पागल हैं वो इसमें भी संभावनाओं को तलाशते रहते हैं। कुछ को तो इसका फल मंत्रिपद के रूप में मिल भी चूका है।
खैर यह कोई नया नहीं है हमारे देश में तो दंगों के बल पर सरकारें बनायीं और गिरायी जाती है।
अंत में इतना ही आप समझदार हैं। फिल्म देखने के बाद ही कोई अवधारणा बनायें।
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