Sunday, 21 January 2018

क्यों ?

कितना सहुँ कबतक लड़ूँ ,इस आग से इस धुंध से
जो फैलता ही जा रहा है अनवरत चारों तरफ।

जो कल तलक थे पूजते थे मानते देवी मुझे
ममतामयी कहते हुए थकते नहीं जो कंठ थे
होती यहाँ जिनकी सुबह थी प्रार्थना से ही मेरी
पहचानते ही क्यों मुझे ये दे रहे अब मौत हैं?

कितना सहुँ कबतक लड़ूँ ,इस आग से इस धुंध से
जो फैलता ही जा रहा है अनवरत चारों तरफ।

अपराध क्या मैंने किया कोई नहीं कहता मुझे
क्यों मिल रही मुझको सजा ये भी नहीं मुझको पता
जो पत्थरों से भीड़ गए बस  न्याय के  सम्मान को
जो सह गए हर आग को इन्साफ की खातिर यहाँ
दर्द को सुनकर मेरे ये रहनुमा क्यों मौन हैं?

कितना सहुँ कबतक लड़ूँ ,इस आग से इस धुंध से
जो फैलता ही जा रहा है अनवरत चारों तरफ।

मैं सोचती थी हर समय मैं जब जहाँ में जाउंगी
सब कह उठेंगे देखकर मुझको वहां नन्ही परी
हर कोई  मुस्काएगा पड़ते ही मुझपे एक नज़र
भगवान् से मांगेंगे सब मेरे लिए लम्बी उमर
सुन के आहट ही मेरी क्यों हर कोई बैचैन है ?

कितना सहुँ कबतक लड़ूँ ,इस आग से इस धुंध से
जो फैलता ही जा रहा है अनवरत चारों तरफ।

हर जवां दिल चाहता है उसका एक मेहबूब हो
आदमी पूरा नहीं होता बिना पत्नी यहाँ
बहु की चाहत यहाँ पर है हरेक माँ -बाप को
भाई को भी चाहिए राखी जो बांधे वो बहन
पर नहीं क्यों चाहता कोई भी अब बेटी यहाँ?

कितना सहुँ कबतक लड़ूँ ,इस आग से इस धुंध से
जो फैलता ही जा रहा है अनवरत चारों तरफ।

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