धर्म एक ऐसा शब्द जिसके जेहन में आने भर से आदमी अच्छाई तलाशना शुरू कर देता है। वो तलाश जो खुद के वर्तमान से शुरू होता है और धीरे- धीरे बढ़ते हुए समाज ,राष्ट्र,विश्व और ब्रह्माण्ड के भूत ,भविष्य को पार करते हुए अनंत तक पहुँच जाता है।
अनंत से मेरा तात्पर्य उस बिंदु से है, जहाँ से आगे देखने की शक्ति हमारे पास नहीं है।
अनंत से मेरा तात्पर्य उस सिरे से है ,जिसका अंत तो है पर कहाँ, हम नहीं जानते।
जब किसी अच्छाई या बुराई को होते हुए देखते हैं तो इस अनंत को समझने की इच्छा प्रबल हो जाती है।
धर्म एक ऐसा शब्द जो न्याय और अन्याय दोनों को परिभाषित करता है। सत्य और असत्य के बीच अंतर स्थापित करता है। इसका मूल स्वरुप क्या है कोई नहीं जानता ,इसे हर वो स्वरुप प्राप्त है जो कल्याणकारी है। इसे हर उस आकर में ढाला जा सकता है जो जीवन को जीवन बनाने में सहयोग करे।
धर्म क्या है समझने से पहले धर्म क्यों है समझना ज़रूरी है।
इस क्यों को समझने के लिए कुछ बिंदुओं पर प्रकाश देना चाहूंगा।
उद्देश्य -जैसा कि हम जानते हैं कि हर निर्माण के पीछे उद्देश्य निहित होता है। धर्म की स्थापना के पीछे भी कुछ उद्देश्य रहे होंग। मानव विकास ने जब गति पकड़ा और हम जानवर से मनुष्य बनने की और अग्रसर हुए तो हमें एक ऐसी संरचना की ज़रूरत महसूस हुई जो हमें एकीकृत रख सके। जिसको आधार मानकर हम भविष्य और वर्तमान के बीच तालमेल बिठा सकें। जो हमें मानव होने का एहसास कराये। जिससे उन विचारों को सबलता प्राप्त हो जो हमारे अंदर करुणा ,प्रेम ,त्याग जैसी भावनाओं को प्रस्फुटित होते हुए देखना चाहती है।
विश्वाश -किसी भी विचार को सर्वसिद्ध बनाने के लिए जो सबसे महत्वपूर्ण आधार है वो है 'विश्वाश' जबतक मनुष्य विश्वाश करना नहीं सीखता तबतक वो कल को नहीं देख सकता था। कहा भी गया है कि विश्वाश पर ही दुनिया टीकी हुई है। जबतक हम एक दूसरे पर भरोसा करना नही सीखते तबतक एक व्यवस्थित समाज की कल्पना करना बेमानी थी और इसके लिए एक ऐसे विचारधारा की ज़रूरत थी जो सबों के दृश्टिकोण से सही हो। जो प्रत्येक व्यक्ति को हितकर लगे।
स्वरुप - भावनात्मक आधार को व्यवहारिकता में लाने के लिए स्वरुप का होना नितांत आवश्यक है। जिस तरह बिना स्वप्न के यथार्थ की कल्पना नहीं की जा सकती ठीक उसी प्रकार बिना माध्यम के उद्देश्य की पूर्ति संभव नहीं है। वो माध्यम भौतिक अथवा काल्पनिक दोनों हो सकता है। भौतिक से पर्याय उस स्वरुप से है जो हमारे सामने हो। काल्पनिक से पर्याय उस स्वरुप से है जो अमिट रूप से हमारे विचारों में विराजमान हो और उचित समय पर उचित निर्णय लेने में सहायक सिद्ध हो।
अनंत से मेरा तात्पर्य उस बिंदु से है, जहाँ से आगे देखने की शक्ति हमारे पास नहीं है।
अनंत से मेरा तात्पर्य उस सिरे से है ,जिसका अंत तो है पर कहाँ, हम नहीं जानते।
जब किसी अच्छाई या बुराई को होते हुए देखते हैं तो इस अनंत को समझने की इच्छा प्रबल हो जाती है।
धर्म एक ऐसा शब्द जो न्याय और अन्याय दोनों को परिभाषित करता है। सत्य और असत्य के बीच अंतर स्थापित करता है। इसका मूल स्वरुप क्या है कोई नहीं जानता ,इसे हर वो स्वरुप प्राप्त है जो कल्याणकारी है। इसे हर उस आकर में ढाला जा सकता है जो जीवन को जीवन बनाने में सहयोग करे।
धर्म क्या है समझने से पहले धर्म क्यों है समझना ज़रूरी है।
इस क्यों को समझने के लिए कुछ बिंदुओं पर प्रकाश देना चाहूंगा।
उद्देश्य -जैसा कि हम जानते हैं कि हर निर्माण के पीछे उद्देश्य निहित होता है। धर्म की स्थापना के पीछे भी कुछ उद्देश्य रहे होंग। मानव विकास ने जब गति पकड़ा और हम जानवर से मनुष्य बनने की और अग्रसर हुए तो हमें एक ऐसी संरचना की ज़रूरत महसूस हुई जो हमें एकीकृत रख सके। जिसको आधार मानकर हम भविष्य और वर्तमान के बीच तालमेल बिठा सकें। जो हमें मानव होने का एहसास कराये। जिससे उन विचारों को सबलता प्राप्त हो जो हमारे अंदर करुणा ,प्रेम ,त्याग जैसी भावनाओं को प्रस्फुटित होते हुए देखना चाहती है।
विश्वाश -किसी भी विचार को सर्वसिद्ध बनाने के लिए जो सबसे महत्वपूर्ण आधार है वो है 'विश्वाश' जबतक मनुष्य विश्वाश करना नहीं सीखता तबतक वो कल को नहीं देख सकता था। कहा भी गया है कि विश्वाश पर ही दुनिया टीकी हुई है। जबतक हम एक दूसरे पर भरोसा करना नही सीखते तबतक एक व्यवस्थित समाज की कल्पना करना बेमानी थी और इसके लिए एक ऐसे विचारधारा की ज़रूरत थी जो सबों के दृश्टिकोण से सही हो। जो प्रत्येक व्यक्ति को हितकर लगे।
स्वरुप - भावनात्मक आधार को व्यवहारिकता में लाने के लिए स्वरुप का होना नितांत आवश्यक है। जिस तरह बिना स्वप्न के यथार्थ की कल्पना नहीं की जा सकती ठीक उसी प्रकार बिना माध्यम के उद्देश्य की पूर्ति संभव नहीं है। वो माध्यम भौतिक अथवा काल्पनिक दोनों हो सकता है। भौतिक से पर्याय उस स्वरुप से है जो हमारे सामने हो। काल्पनिक से पर्याय उस स्वरुप से है जो अमिट रूप से हमारे विचारों में विराजमान हो और उचित समय पर उचित निर्णय लेने में सहायक सिद्ध हो।